फ़र्ज़ और क़र्ज़

 फ़र्ज़ और क़र्ज़


एक बार

महसूस कीजिए

अपने बुज़ुर्गों के दर्द को

जो हर रोज हर पल वो सहते हैं

कहते कुछ नहीं हर सांस में जीते है

धड़कनें तो चलती हैं मगर सांसों का बोझ ढोते हैं!

उम्मीदें

जिसने की थी

वो भी टूट गयी

नींद आँखों से रूठ गयी

सारी रात करवटें बदलते हैं!

खो गयी हंसी और खुशी दोनों

ख़ामोशी और मायूसी साथ-साथ रहते है

अपनो में होकर भी जब बुज़ुर्ग तन्हा-तन्हा रहते है!

क्या ये आया कभी ख़्याल हमें

आखिरकार वो कैसे जीते है

जिन्होनें दी ज़िंदगी हमको, ख़ुद जिंदगी को तरसते है!

आबाद थी हमसे ही दुनियाँ उनकी

अपनी दुनियाँ में हम मस्त रहते है

दो घड़ी पास उनके बैठ सके

इतना भी वक्त नही अपने में ही व्यस्त रहते है!

फिक्र हमें

अपने बच्चों की

हमारे माता-पिता अपने

बच्चों के लिये तड़पते है

जी भरकर देख ले लाल को अपने

बूढ़ी आँखों में उनकी यही ख़्वाब रहते है!

कितने अभागे है हम

पास दरिया है फिर भी प्यासे रहते है!

आँखें नम

उदिग्न मन सवाल ज़ेहन में

आखिर क्यूँ हम बच्चें नही समझते है?

हमारे माता-पिता किस जुर्म की सजा भुगतते हैं!

उम्र का पड़ाव आखिरी

जीवन की सांझ ढलने को

ख़्वाहिशें शेष नहीं, करने को कुछ विशेष नहीं

फिर भी ज़िंदगी जीने को तरसते हैं!

कितने तंग दिल है हम

उन्हें तरसते,तड़पते,घुटते, रेंगते

क़तरा-क़तरा बिखरते, ज़र्रे-ज़र्रे में मिलते देखते हैं!

शायद

इसी दिन के लिए

माता-पिता बच्चों को

पाल-पोस कर बड़ा करते हैं!

भर सके

स्वच्छंद उड़ान

अनंत गगन हमको देते हैं!

कैद में रख सके हम उनको हमारे परों को शसक्त करते है...!

बोझ

क्यूँ ढोएं हम

उनको देखकर ही थकतें हैं!

जो भी किया उनका ये फ़र्ज़ था फ़र्ज़ अपना अदा करते है !

सच ही है ना!

आखिर माता-पिता

बच्चों के लिए क्या ख़ास ऐसा करते हैं!

ज़रा सी

अपनेपन की

हृदय में चाह लिए

अनगिनत अपेक्षाएं रखतें हैं

गिरवी रख कर सांसें अपनी ताउम्र कर्जदार बने रहते हैं!








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